Saturday, 14 October 2017
Sunday, 1 October 2017
रूखी सासें
उड़ा ले गयी हैं हवाएं मुझे, मेरा कोई ठिकाना नहीं।
चिड़ियों की चहचहाट से होती थी सुबह,
मगर अब किसी का कोई फ़साना तक नहीं।
चल पड़ा हूँ सफर में , न कोई अपना, कोई बेगाना नहीं
देखी हैं ऋतुएं कई, कभी बसंत, कभी बरखा, अब तो पतझड़ का भी अफसाना नहीं।
जूझने दो मुझे अकेले, रास्ते में ऐसे ही किसी को उसके जीवन की याद दिलाऊँ,
कमस कम किसी काम का नहीं तो किसी के फ़ोन में तस्वीर बन कर ही ठहर जाऊं।
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